Saturday, January 8, 2011

वो बीते पल ............


आज इस उन्मुक्त गगन में, आजाद पंक्षी को कभी जो देखता हूँ।
तो सोचता हूँ....................

आ गया हूँ मैं कहाँ, आजाद हूँ क्या मैं यहाँ।
क्या ये मेरा लक्ष्य था, आ रुका हूँ मैं जहाँ।
इस तरह के प्रश्न कुछ , आवाज़ देते हर घड़ी,
सोचता हूँ जब कभी, है याद आती वो कड़ी॥

जब रोज सपने थे बदलते, हर शाम को सूरज के ढलते।
तब हर घड़ी थी खुशनुमा, जब हम सभी थे साथ चलते।
इस छद्म सावन की चमक में, आ गए हैं हम कहाँ,
उस घड़ी पतझड़ को भी, सावन में थे हम बदलते॥

रात के दो-दो बजे, चाय की वो चुस्कियां।
बारिश में आकर भीगना, और सर्दियों की सिसकियाँ।
प्यार होता है क्या, ये शायद न तब थे जानते,
पर प्यार होता हर घड़ी, और दिल था सबसे इश्किया॥

हर बार बस पेपर से पहले, रात में पढ़ना सभी का।
और फिर पढ़ने के वादे, टूटना उनका कभी का।
हर शाम को वो बेतुकी बातें ही, शायद जिंदिगी थी,
सोचा था न हमने कभी, यूँ बिखरना जिंदिगी का॥

वो सुकून के चार पल, फिर से हम पाएंगे कैसे।
जब बहुत लगते थे हमको, पॉकेट मनी के चार पैसे।
लोग क्या समझेंगे, ये तो लोग ही जाने मगर,
धुन में अपनी ही थे हम, और हरकतें बच्चों की जैसे॥

कॉलेज के वो दिन, जो कभी न लौट के आयेंगे अब।
वो हँसी, वो जिंदिगी, रह गयी यादों में बस।
ताश के वो पत्ते , जो बिखरे पड़े हैं फर्श पर,
देखते हैं राह, कि कब लौट कर आयेंगे सब ॥